Tuesday 18 July 2023

अम्माँ

 इससे मांगिन, उससे मांगिन

सबसे मांगिन प्याज़

खच-खच काटिन अम्माँ

भर-भर रोइन आज


 
इससे लाइन, उससे लाइन

जुड़-जुड़ लाइन अनाज

खद-खद भात पकाइन

भर-भर खाइन आज

 

इससे पूछिन, उससे पूछिन

सबके पूछिन राज़

रह-रह रोइन अम्माँ

भर-भर रोइन आज

 



इससे लिहिन, उसको दिहिन

आज उतारिन ब्याज

ख़र-ख़र सोइन अम्माँ

भर-भर सोइन आज

Thursday 13 July 2023

भगौड़ी

 हर घड़ी भागी हुई सी

घर से थोड़ी दूर

बढ़ी जाती है

किसी जानिब को वो ज़रूर

 

पर लौटती है इस क़दम

… दो उस क़दम लेके

हाँपती है दम

दलीलें ज़्यादा-कम देके

 


तोलती है पर… उसी दम घर है खोलती

देखती है सूरतें…

दीवारें और दर

हर तरफ़ एक सरसरी है फेरती नज़र

डोलती है याँ-वहाँ… नहीं वो बोलती

 

…है किसी से… क्यों गई थी

आई है अब क्यूँ

हर घड़ी भागी हुई सी

घर से ऐसे यूँ…

Friday 5 May 2023

स्पर्श


फैल गए स्पर्श तुम्हारे 

जैसे गीला रंग 

और पसरती रंगोली में 

होली होली मेरा तन 

 

जैसे भेज रहे हो मुझको 

धीरे धीरे तुम संलग्न 

लाल रंग वियोग में ला के 

बहती अल्पना के कम्पन 

 

जैसे तुम आज प्रात भी 

बैठे मेरे संग 

जैसे लिपटी देह से अबतक 

तुम्हारी देह की कण 

 

भोर पहन के आज तुम्हारे 

अलंकार चिन्हार के 

जैसे मुझको सींच रहे हों 

भीगे हाथ बयार के 

 

अपनी बगिया से भोरे 

चुन कर इतने प्यार से 

जैसे भेज दिए हों तुमने 

फूल हरसिंगार के 

 

तुम फैल गए जैसे चन्दन 

और मैं जैसे वन 

जैसे कारावास में फैले 

मन में कोई घुटन 

 

फैल गए स्पर्श तुम्हारे 

जैसे गीला रंग 

और पसरती रंगोली में 

होली होली मेरा तन 

 


Monday 15 November 2021

उधार




कभी कुछ बोल देते हो तुम 

ऐसे ही... कोई हँसने रोने की बात

और ले कर बैठ जाती हूँ मैं 

रात दिनदिन रात।


और फिर कहने लगती हूँ तुमसे,

के ऐसा नहीं हैवैसा नहीं है

और तुम पकड़ लेते हो मेरे हाथ...


जैसे झूठ पकड़ा जाता है

एकाएक... एक बार 

और सहम जाती हूँ मैं

यूँ ही कभी कभार


कि नहीं लौटाया हो मैंने

कभी कुछ लिया होगा...

तुमसे कोई उधार


जो आज तुमको याद आया

और तुमने बोल दी 

ऐसे ही... कोई हँसने रोने की बात

अकस्मात् 

Saturday 3 October 2020

Walk


There is rain, there is thunder,
There is night, there is me.
There is dark, there is city, 
There is none to see.
 
I am wet, in the middle
Of nowhere and how...
I am walking the roads
I am shivering by now.
 
I have a chance, there is a park,
There are benches, there is shade...
I lit a small wood,
What a fire I made!
 
There are embers, there is flame,
There is smoke, there is steam...
In my limbs, in my face,
In my breasts, sets the beam...
 
Of the red bright fire,
Heating my soul,
Drying my body,
Beating my cold.
 
And now do I check
I have one smoke left...
Is it soggy? Is it dry?
I give it a try.
 
But I itch in my shirt,
It's stuck on my skin,
It's dripping,
And droplets are seeping within.
 
I take it off,
And give it a wrench,
Put it by fire...
On the side of the bench.
 
And now I can feel...
The balm of the blaze.
I stretch my length,
For the light to glaze...
 
My bare belongings,
My body, my flesh,
My skin, my blood,
The whole of my mesh.
 
And now do I coil...
About the cinder,
Closing a nap,
Releasing a wonder.
 
There is rain, there is thunder,
There is night, there is me.
There is dark, there is city,
There is none, I am free... 

 


Friday 25 January 2019

आज़ादी की बात

तुमसे बोल रही हूँ,
तुमतो सुनते होगे ना?

मेरे जैसे तुम भी
धागे बुनते होगे ना?

इस फंदे में देखो मेरी
ऊँगली उलझ गयी
बुनते बुनते, तुम भी
आँखें मुनते होगे ना?

क्या बुन डाला?
आड़े टेढ़े बन्धन ये बर्बाद।
कहीं शिला की अडिग दीवारें
कहीं पे ये उन्माद!

लाओ उधेड़ो ये जंजाल
फिर से करो जतन
इसको खोलो, उसको बाँधो,
उसका करो पतन

हाँ अब जा कर बूझ रहें हैं
अंतिम दोनो छोर
दूर ही रखना, पास ना लाना
एक दूजे की ओर

बड़ा संदिग्ध है, भ्रम जैसा ये
मन में एक आह्लाद
काट दिया क्या पाश मेरा?
क्या हो गया मैं आज़ाद?

नहीं नहीं ऐसा मत करना
ये पाश है मेरा घर...
गृह प्रवेश रखा है आज
तुम भी आते अगर...

तुमसे बोल रही हूँ
तुम तो सुनते होगे ना?
घर में नयी दीवारें तुम भी
चुनते होगे ना?

असमंजस में कैसे हो?
हूँ मैं तुम्हारे साथ।
आओ फिर से करते हैं,
आज़ादी की बात...

Monday 24 April 2017

सान्त्वना

आज असीम की ओर अगर देखा होता,
आज न जाने क्या लेखा जोखा होता!

अच्छा है ये नयन शिला से बन बैठे...

ह्रदय में वरना आज कोई शिला होती,
शिला पे वरना फूल कोई खिला होता...

क्या करता मैं उसका?

तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.

Friday 3 January 2014

रैन का पंछी

इन नीन्द से बोझिल आँखों में
कुछ शिथिल शिथिल से सपने हैं
और मलिन सी एक परछाईं है
पिछले रैन बसेरे की...
इस संदिग्ध सवेरे की

सोच रहा हूँ आज दिवस ये
क्या परिवर्तन लाएगा
एक तमस जो मन में है
क्या आलोक जलाएगा?

पिछली रैन के साथी से भी
जगने कहता हूँ
नयी उषा की नयी आँच में
तपने कहता हूँ




उसकी आँखों पे भी थोड़ी
राख जमी सी है
थोड़ी थोड़ी उसकी भी तो
श्वाँस थमी सी है

बड़ी दूरस्थ दिशाएँ वो भी
देखा करता है
मेरे जैसे नयी भोर से
वो भी डरता है...

उसका हाथ पकड़ के मैं भी
कम घबराऊँगा
अरसा बीता...आशा है
अब घर जाऊँगा।

तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.

Sunday 11 March 2012

To the king I bow!

















Sometimes the life seems beautiful,
And time plentiful…

To weave yarns of warmth
Around the winter chill

Time long enough to leisurely kill

And play with the wall clock
The way he demands –
Fastening and slowing the moments,
Twisting the hour, minute and second hands


Or by pulling off my wrist watch
To wrap it fast…
Around his tiny wrist,
And break into that laughter blast!

Mocking at the hollowness
Of all the high-held humour
That human race enthuses
But like a patient tumour

That takes its time to tell its presence
A lifetime to let you know
May be like some promised comet
Or some dormant volcano…

Oh no!
But he seldom knows all that
And only I am supposing
These demons of derisiveness
On a naughty head imposing

His callowness is verily true
But how so much deceptive
Are those tiddly crystal eyes
To hold me always captive

And yes, those are now rolling fast
To catch a glimpse of thought
That goes into that earnest job
Of doctoring the lid on the pot

And seldom should you enter
This workshop on the go
And better pledge your trust
And to the king…you bow

'To quetch, to yearn, to strive,
To hoard, to earn, to hive…'
If nothing else does matter
And life is designed to shatter

Then...

Sometimes, this strife seems meaningful
To rub against the time
To spring at once in running spree
And play him a lullaby chime…

Saturday 21 January 2012

सैलाब


अपने निर्बल खेतों की, मैं मेढ़ नहीं पाता हूँ
क्यों सिन्धु वो मेरे ढान्ढस ढेर किये जाती है?
वो इतनी गहरी, मैं उसको छेड़ नहीं पाता हूँ
बिंदु बिंदु वो, बिम्ब सा मुझे बिखेर दिए जाती है...

क्यों सिन्धु वो मेरे ढान्ढस ढेर किये जाती है?



आज बहुत सोचा है, उसके समक्ष नहीं जाऊँगा
उसकी वृहत भुजाओं का आलिंगन नहीं पाऊँगा
तो भी मेरा समावेश, कोई तो कर लेगा...
मेरी आकुल सासों का सारांश पढ़ लेगा 

जैसे पढ़ लेता हूँ पाती, मैं कुछ दो लिपिओं की
जैसे वो पढ़ती है... सिन्धु मनःभेद सिपिओं की
हो न हो, हो जायेगा... मेरा भी तो तर्पण
प्रतिबिम्ब को काफ़ी है, एक छोटा सा दर्पण

फिर क्यों उसकी विस्तृत काया, एक लालसा है
उसका पानी जहाँ गिरे, एक ढाल सा है
शायद मेरी मेढ़ों में, है कोई ताना बाना
के है उनको बहना, और है सैलाब को आना...

यों ही मेरी आशा कोई ‘सिन्धु’ न होती
और उसके ज्वारों की ऊर्जा, ‘इंदु’ न होती...

तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.

Wednesday 13 October 2010

छोटा अचकन

अब तो जम सा गया है पानी
आसमान का रंग लिए
जिस असीम को नाप रहा था
उसकी छाया तंग लिए

भिक्षुक सा बैठा है जैसे
अपने कातर अंग लिए
और वही निराशा कौंध रही है
नए नए प्रसंग लिए


अब उसको ये नीला अचकन
छोटा छोटा लगता है
और वो कौतुहल सा बचपन
खोटा खोटा लगता है

जो आकाश का बिम्ब लोकने
ज्वारों को ललकाता था
दर्पण सी, बहती बाँहों को
आलिंगन ललचाता था

पर आशा तो आशा है जबतक
उसका कोई निर्वाण नहीं
नैनों की भाषा है जबतक
शब्दों का कोई ज्ञान नहीं

जैसे तुम इंगित हो मेरे
जबतक तुम आसान नहीं
और मैं छवि तुम्हारी जबतक
मैं अपनी पहचान नहीं

अब तो मैं भी भाँप रही हूँ
शब्दों का सारांश
और जलाशय नाप रहा
अपने ही तट अधिकांश

क्योंकि जम सा गया था पानी
आसमान का रंग लिए
जिस असीम को नाप रहा था
उसकी छाया तंग लिए

भिक्षुक सा बैठा था जैसे
अपने कातर अंग लिए
और वही निराशा कौंध रही थी
नए नए प्रसंग लिए

अब आज धुरी को छोड़ धरा
अपने नाच दिखाएगी
हो न हो ये बनी बावरी
सौ सौ चक्कर खाएगी

और जलाशय नए नए
चित्रों का बिम्ब सजाएगा
अम्बर के नीले अचकन पे
बेल और बूटे बनाएगा

तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.