अपने निर्बल खेतों की, मैं मेढ़ नहीं पाता हूँ
क्यों ‘सिन्धु’ वो मेरे ढान्ढस ढेर किये जाती है?
वो इतनी गहरी, मैं उसको छेड़ नहीं पाता हूँ
बिंदु बिंदु वो, बिम्ब सा मुझे बिखेर दिए जाती है...
क्यों ‘सिन्धु’ वो मेरे ढान्ढस ढेर किये जाती है?
आज बहुत सोचा है, उसके समक्ष नहीं जाऊँगा
उसकी वृहत भुजाओं का आलिंगन नहीं पाऊँगा
तो भी मेरा समावेश, कोई तो कर लेगा...
मेरी आकुल सासों का सारांश पढ़ लेगा
जैसे पढ़ लेता हूँ पाती, मैं कुछ दो लिपिओं की
जैसे वो पढ़ती है... ‘सिन्धु’ मनःभेद सिपिओं की
हो न हो, हो जायेगा... मेरा भी तो तर्पण
प्रतिबिम्ब को काफ़ी है, एक छोटा सा दर्पण
फिर क्यों उसकी विस्तृत काया, एक लालसा है
उसका पानी जहाँ गिरे, एक ढाल सा है
शायद मेरी मेढ़ों में, है कोई ताना बाना
के है उनको बहना, और है सैलाब को आना...
यों ही मेरी आशा कोई ‘सिन्धु’ न होती
और उसके ज्वारों की ऊर्जा, ‘इंदु’ न होती...
तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.
No comments:
Post a Comment