Wednesday 13 October 2010

छोटा अचकन

अब तो जम सा गया है पानी
आसमान का रंग लिए
जिस असीम को नाप रहा था
उसकी छाया तंग लिए

भिक्षुक सा बैठा है जैसे
अपने कातर अंग लिए
और वही निराशा कौंध रही है
नए नए प्रसंग लिए


अब उसको ये नीला अचकन
छोटा छोटा लगता है
और वो कौतुहल सा बचपन
खोटा खोटा लगता है

जो आकाश का बिम्ब लोकने
ज्वारों को ललकाता था
दर्पण सी, बहती बाँहों को
आलिंगन ललचाता था

पर आशा तो आशा है जबतक
उसका कोई निर्वाण नहीं
नैनों की भाषा है जबतक
शब्दों का कोई ज्ञान नहीं

जैसे तुम इंगित हो मेरे
जबतक तुम आसान नहीं
और मैं छवि तुम्हारी जबतक
मैं अपनी पहचान नहीं

अब तो मैं भी भाँप रही हूँ
शब्दों का सारांश
और जलाशय नाप रहा
अपने ही तट अधिकांश

क्योंकि जम सा गया था पानी
आसमान का रंग लिए
जिस असीम को नाप रहा था
उसकी छाया तंग लिए

भिक्षुक सा बैठा था जैसे
अपने कातर अंग लिए
और वही निराशा कौंध रही थी
नए नए प्रसंग लिए

अब आज धुरी को छोड़ धरा
अपने नाच दिखाएगी
हो न हो ये बनी बावरी
सौ सौ चक्कर खाएगी

और जलाशय नए नए
चित्रों का बिम्ब सजाएगा
अम्बर के नीले अचकन पे
बेल और बूटे बनाएगा

तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.

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