बहुत थक गई हूँ पराये बदन में
पराया बदन अब उतारूँ
पहनूँ मैं फिर से फटा जिस्म अपना
जोबन मैं फिर से सवारूँ
बनूँ फिर से जोगन, धरूँ जोग फिर से
चंदा को फिर से निहारूँ
फिर से मैं ढूंढूँ सड़क पे निकेतन
ख़ुद को मैं फिर से पुकारूँ
देखूँ कि मुझमे कहाँ पे छुपे थे
आँगन हरे खेत वाले...
पञ्जर थे मुझमे कई बिम्ब लेकिन,
कहाँ थे वो गंगा के नाले?
कहाँ थीं निराशा कि बंजर धरा पे,
आशा कि जलती मशालें?
कहाँ कल्पनाओं कि ऊँची उड़ानें?
कहाँ पे तमस काले काले?
ये मैं नहीं जो सजाई सँवारी
दुल्हन नई और नवेली
मेरे झोपड़े पे बनाई ये किसने
चका चौंध ऐसी हवेली?
निकलूँ मैं बाहर, खोलूँ दरवाज़े
ढूंढूँ कहाँ हैं वो तिनके
जो चुभते थे लेकिन
आवारा परिंदे,
इन्हीं से तो थे नीड़ बुनते
बैठूँ मैं फिरसे उसी आरसी को
मुझी से जो मुझको निकाले
दिखती हूँ तो देख लें मुझको सब
खड़ी हूँ मैं सबके हवाले
तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.
1 comment:
भावों की पराकाष्ठा।निश्चय ही सुविधाभोगी जिंदगी में कालोपरांत कभी न कभी अपने वास्तविक नैसर्गिक रूप में लौटने की कसमसाहट शुरू हो जाती है। कविता की शिल्प में थोडे परिष्कार की गुंजाइश है।लयात्मकता सोने पे सुहागा का काम करेगा।
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