Thursday 10 June 2010

गंगा स्नान


जब जान लोगे
मेरे भेद सारे
मुझसे मिटा लेना
तुम खेद सारे

और फिर से मिलना
पुराने प्रणय से
वापस पुराने पुराने
समय से

निशाधीश मेरे
फिर से तुम आना
निश्शेष बातों में
निस्वन जगाना



मेरी धारणाएं बदल सी गयी हैं
पुरानी शिलाएं पिघल सी गयी हैं

जिनपे मेरी तुम्हारी परस्पर
राहें थीं पढ़ती, मीलों के पत्थर

अब राह लम्बी है, और हैं दिशाएँ
देवल कई हैं, कई आस्थाएँ

मैं टेक लेती हूँ माथा सभी को
और भूल जाती हूँ थोड़ी विथाएं

निशाधीश फिरभी...अगर हो सके तो
भरी दोपहर में, निशा लेके आना
बहुत थक गए होगे तुमभी
निकेतन...
बेघर सी अपनी दशा लेके आना

दोनों चलेंगे गंगा नहाने
पापों दुखों को नदी में बहाने

बदले समय में क्या सच क्या मिथ्या?
वही तुम पुजारी, वही मैं भी सत्या

तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.

3 comments:

saif said...

wonderful! A beautiful poem...Saif

Unknown said...

Amazing! I din't know that u could write in hindi also.

Unknown said...

फराह आपकी एक-दो कविताएँ यूं पहले भी दरियागंज वाले कमरे में सुनी थीं पर एक साथ उन्हें पढ़ने का अनुभव हटकर रहा...आपकी कविताओं में गहन एकाकीपन के बिम्ब बार-बार आते हैं और वे स्वाभाविक रूप से एक निश्छल किस्म की उदासी का अंतर्जगत रचते हैं...यह निश्छलता एक स्तर पर आकर तकलीफदेह बन जाती है और भीतर बहुत कुछ टूटने-बिखरने लगता है...आप अब कविता के आकाश में काफी समय गुज़र चुकी हैं और समय आ गया है कि अपने अंतर्जगत से बाहर आकर आप स्त्री के सामयिक प्रश्नों पर भी विचार करें...आपकी कविताओं में अब स्त्री को अपना सामाजिक स्वरुप ग्रहण कर लेना चाहिए...जो कि मेरी समझ से अब तक एक एकाकी जीवन जीती आ रही है...स्त्री की अस्मिता के राजनीतिक मुद्दे आपकी कविताओं में आने की बाट जोह रहे हैं...उन्हें मौका दें...शुभकामनाएँ...!