जब जान लोगे
मेरे भेद सारे
मुझसे मिटा लेना
तुम खेद सारे
और फिर से मिलना
पुराने प्रणय से
वापस पुराने पुराने
समय से
निशाधीश मेरे
फिर से तुम आना
निश्शेष बातों में
निस्वन जगाना
मेरी धारणाएं बदल सी गयी हैं
पुरानी शिलाएं पिघल सी गयी हैं
जिनपे मेरी तुम्हारी परस्पर
राहें थीं पढ़ती, मीलों के पत्थर
अब राह लम्बी है, और हैं दिशाएँ
देवल कई हैं, कई आस्थाएँ
मैं टेक लेती हूँ माथा सभी को
और भूल जाती हूँ थोड़ी विथाएं
निशाधीश फिरभी...अगर हो सके तो
भरी दोपहर में, निशा लेके आना
बहुत थक गए होगे तुमभी
निकेतन...
बेघर सी अपनी दशा लेके आना
दोनों चलेंगे गंगा नहाने
पापों दुखों को नदी में बहाने
बदले समय में क्या सच क्या मिथ्या?
वही तुम पुजारी, वही मैं भी सत्या
तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.
3 comments:
wonderful! A beautiful poem...Saif
Amazing! I din't know that u could write in hindi also.
फराह आपकी एक-दो कविताएँ यूं पहले भी दरियागंज वाले कमरे में सुनी थीं पर एक साथ उन्हें पढ़ने का अनुभव हटकर रहा...आपकी कविताओं में गहन एकाकीपन के बिम्ब बार-बार आते हैं और वे स्वाभाविक रूप से एक निश्छल किस्म की उदासी का अंतर्जगत रचते हैं...यह निश्छलता एक स्तर पर आकर तकलीफदेह बन जाती है और भीतर बहुत कुछ टूटने-बिखरने लगता है...आप अब कविता के आकाश में काफी समय गुज़र चुकी हैं और समय आ गया है कि अपने अंतर्जगत से बाहर आकर आप स्त्री के सामयिक प्रश्नों पर भी विचार करें...आपकी कविताओं में अब स्त्री को अपना सामाजिक स्वरुप ग्रहण कर लेना चाहिए...जो कि मेरी समझ से अब तक एक एकाकी जीवन जीती आ रही है...स्त्री की अस्मिता के राजनीतिक मुद्दे आपकी कविताओं में आने की बाट जोह रहे हैं...उन्हें मौका दें...शुभकामनाएँ...!
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