Friday 3 January 2014

रैन का पंछी

इन नीन्द से बोझिल आँखों में
कुछ शिथिल शिथिल से सपने हैं
और मलिन सी एक परछाईं है
पिछले रैन बसेरे की...
इस संदिग्ध सवेरे की

सोच रहा हूँ आज दिवस ये
क्या परिवर्तन लाएगा
एक तमस जो मन में है
क्या आलोक जलाएगा?

पिछली रैन के साथी से भी
जगने कहता हूँ
नयी उषा की नयी आँच में
तपने कहता हूँ




उसकी आँखों पे भी थोड़ी
राख जमी सी है
थोड़ी थोड़ी उसकी भी तो
श्वाँस थमी सी है

बड़ी दूरस्थ दिशाएँ वो भी
देखा करता है
मेरे जैसे नयी भोर से
वो भी डरता है...

उसका हाथ पकड़ के मैं भी
कम घबराऊँगा
अरसा बीता...आशा है
अब घर जाऊँगा।

तस्वीर इन्टरनेट से ली गयी है.

No comments: